करीब पांच हजार निर्दोष भारतीयों की हत्या कर गांव का नामो-निशान मिटा दिया था, महुआ डाबर की कहानी
हैरान कर देगी
करीब 5000 लोगों को घेर कर मार दिया गया था और महुआ डाबर नाम के गांव की पहचान मिटा कर करीब 50 किलोमीटर दूर उसी नाम का नया गांव बसा कर असली जगह की पहचान छिपाने की बड़ी साजिश हुई। इतिहास छिप नहीं सकता, दशकों बाद खुदाई में जमीन में दबी गांव की सच्चाई सामने आई, लेकिन हैवानियत की इतनी बड़ी घटना पर गुनहगारों की तरफ से कभी अफसोस का एक लफ्ज तक नहीं कहा गया।
क्रूर अंग्रेजी हुकूमत ने आज से 168 साल पहले 3 जुलाई 1857 को बस्ती जनपद के बहादुरपुर ब्लॉक अंतर्गत महुआ डाबर गांव को अंग्रेजी छुड़सवार फौजों की मदद से तीन तरफ से घेरकर गोलियों से छलनी कर दिया था। बूढ़े-बच्चे, महिलाओं को टुकड़े-टुकड़े करने के बाद आग के हवाले कर दिया गया। इतना ही नहीं महुआ डाबर के सभी मकानों, दुकानों, हरकरघा कारखानों को जमींदोज करके ‘गैर चिरागी’ बना दिया। इतिहास के पन्नों से इस गांव का नाम हमेशा के लिए मिटा दिया गया। महुआ डाबर से सटकर बहने वाली, इस घटना की एक मात्र साक्षी मनोरमा नदी आज भी उदास है।
दरअसल 1857 की क्रांति की चिंगारी जब मेरठ से उठी, तो उसने पूरे भारत को आग की लपटों में झुलसा दिया। गोरखपुर जनपद के बस्ती तहसील पर स्थित अफीम और ट्रेजरी की कोठी पर 17वीं नेटिव इनफेन्ट्री की एक बड़ी टुकड़ी सुरक्षा के लिए तैनात थी। इस यूनिट का मुख्यालय आजमगढ़ में था। 5 जून को आजमगढ़ में विद्रोह शुरू हो गया और 6 जून को सिपाहियों ने आदेश मानने से इंकार कर दिया. इसके बाद 7 जून को जेल से भागने की कोशिश में 20 कैदी मारे गए। गोरखपुर में सिपाहियों ने 8 जून को खजाना लूटने का प्रयास किया, कैप्टन स्टील की अश्वारोही फौजें भी बैकफुट पर आ गईं। फैजाबाद और गोंडा के सिपाहियों ने भी अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। 8 जून को फैजाबाद छावनी पर विद्रोहियों ने कब्जा कर लिया। 9 जून को ही, आजमगढ़ में तैनात 17वीं नेटिव इन्फैंट्री के सिपाही अंग्रेजों को खत्म करने के लिए फैजाबाद पहुंचे, उन्होंने सेना का पीछा किया. अंग्रेजों ने उन्हें 1.30 बजे फैजाबाद से पूरब में बेगमगंज के पास घाघरा पर घेर लिया जो 18 मील दूर है, और घाघरा के दाहिने किनारे से उन पर गोलीबारी शुरू कर दी, लेकिन परिणाम यह रहा कि फैजाबाद के अधीक्षक कमिश्नर कर्नल गोल्डनी और मेजर मिल सहित आठ अधिकारी मारे गए या लापता हो गए। शेष अधिकारी भाग निकले और नदी के किनारे जंगल में छिप गए।
रात में 12 बजे इन अधिकारियों को स्थानीय जमींदार ने बस्ती के रास्ते अमोढ़ा की ओर पहुंचाया. उन्हें अमोढ़ा के तहसीलदार ने धन और सुरक्षाकर्मी दिये और लेफ्टिनेंट रिची और लेफ्टिनेंट कॉल्टी के लिए दो खच्चर भी दिए। वे सभी कप्तानगंज पहुँचे और वहाँ से वे बस्ती जाना चाहते थे। वहाँ के जमीदारों ने उन्हें बस्ती न जाने को कहा और गायघाट जाने की सलाह दी क्योंकि 17वीं नेटिव इन्फ़ेंट्री के सिपाही जो अपने साथ ख़ज़ाना लेकर बस्ती-फ़ैज़ाबाद रोड पर मार्च कर रहे थे, बस्ती में रुक गए थे।
10 जून 1857 को अंग्रेजी अधिकारियों का दल और सुरक्षा में तैनात टुकड़ी कप्तानगंज से गायघाट के लिए रवाना हुई, आठ मील की यात्रा के बाद दल महुआ डाबर के पास पहुंचा। जो 15 किलोमीटर दक्षिण में गोरखपुर जिले के तत्कालीन बस्ती तहसील के अंतर्गत थी। यह छींट कपड़ा उद्योग का एक प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय केंद्र था। लगभग 5,000 की पूरी आबादी कपड़े की बुनाई, रंगाई और छपाई में लगी हुई थी। यहां एक मंजिला और दो मंजिला मकान, पीतल, के बर्तनों का बाजार, अनाज मंडी, स्कूल, ऊँची मीनार वाली मस्जिदें थीं।
मनोरमा नदी पार कर रहे इन अंग्रेज अफसरों पर महुआ डाबर, अमिलहा, मुहम्मदपुर, नकहा आदि गांवों के वीरों ने जिन्होंने अंग्रेजों हुकूमत के खिलाफ जनयुद्ध छेड़ रखा था— गुलाब खां, अमीर खां, पिरई खां, वज़ीर खां, जफ़र अली और अन्य साथियों ने धावा बोल दिया। इस गुरिल्ला युद्ध में लेफ्टिनेंट इंग्लिश, लिंडसे, थॉमस, कॉटली, एन्साइन रिची, सार्जेंट एडवर्ड मारे गए। घायल सार्जेंट बुशर को कलवारी के जमींदार बाबू बल्ली सिंह ने बंधक बना लिया।
ब्रिटिश सरकार महुआ डाबर हमले से बौखला गई। लिहाजा गोरखपुर के जज डब्लू. विनार्ड और कलेक्टर डब्लू. पीटरसन ने वर्डपुर के जमींदार विलियम पेप्पे को बस्ती का डिप्टी मजिस्ट्रेट नियुक्त किया। पेप्पे को आदेश दिया गया कि वह लोगों के विद्रोह को किसी भी तरह से तुरंत कुचल दे।
जमींदार बाबू बल्ली सिंह की कैद से सार्जेंट बुशर 10 दिन बाद रिहा हो सका. 20 जून को बस्ती में मार्शल लॉ लगा दिया गया। 3 जुलाई को गोरखपुर के कलेक्टर पेप्पे विलियम्स ने घुड़सवार फौजों के साथ महुआ डाबर को चारों ओर से घेर कर जला दिया और 'ग़ैरचिरागी' घोषित कर दिया। गांव के बचे हुए लोगों के सिर कलम किए गए, संपत्ति जब्त कर राजकोष में जमा कराई गई। गुलाम खां, गुलजार खां, नेहाल खां, घीसा खां सहित कई क्रांतिकारियों को 18 फरवरी 1858 को फांसी पर चढ़ा दिया गया। महिपत सिंह ने क्रांतिकारियों की मुखबिरी कर तीन हजार रुपये सालाना लगान वाली ज़मीन इनाम में प्राप्त की।
महुआ डाबर के खौफनाक दमन की खबर भारत के कोने-कोने में फैलाई गयी कि जिसने भी ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ गर्दन उठाई उसको नेस्तानाबूद कर दिया जाएगा। महुआ डाबर को जमींदोज करने के लिए विलियम पेप्पे को ईस्ट इंडिया कंपनी ने पुरस्कृत किया और बर्डपुर के आसपास जमीन दी जहां वह एक बड़ी यूरोपीय संपत्ति का मालिक बना।
21 मई 1858 को क्रांतिकारियों ने पेप्पे विलियम्स के ठिकाने पर हमला कर दिया, जिसमें 17 लोग मारे गए। 12 जून 1859 को पेपे पर अंतिम हमला हुआ जिसमें वह घायल हो गया और उसकी एक उंगली कट गई। 6 अक्टूबर 1860 को ‘महुआ डाबर प्रोसीडिंग’ में दर्ज अदालती कार्यवाहियों में विरोधाभास सामने आए, जिनमें गवाहियों और दस्तावेजों की कमी साफ झलकती है। मेहरबान खां को फांसी और दो कर्मचारियों को कालापानी की सजा हुई।
महुआ डाबर एक्शन के क्रांतिवीर जमींदार जफ़र अली मक्का चले गए, फिर लौटकर दोबारा संग्राम में शामिल हुए, बाद में टांडा घाट पर 12 वर्ष बाद पकड़े गए और बस्ती में मुकदमा चलाकर फांसी दे दी गई।
इसके बाद शुरू हुई महुआ डाबर की पहचान हमेशा के लिए मिटा देने की साजिश। महुआ डाबर को जलाने और नक्शे से मिटाने की बर्बरता के गवाह जो लोग बाहर थे, मौके से बच गए, उनकी मौत के बाद एक सोची समझी साजिश के तहत जमींदोज महुआ डाबर से 50 किमी दूर बस्ती-गोंडा सीमा पर गौर के पास दूसरा महुआ डाबर गांव बसाकर पुर्नवास का ढोंग किया गया। 1907 में बस्ती गजेटियर का संकलन करते हुए पृष्ठ संख्या 158 पर एच.आर. नेविल ने महुआ डाबर की पहचान उसी नाम के गांव से की, जो ध्वस्त महुआ डाबर से 50 किलोमीटर बसा है। सवाल उठता है कि गैर चिरागी महुआ डाबर में जब कोई बस नहीं सकता था तो ब्रिटिश सरकार के कारिंदो का झूठा लेखन कई सवाल खड़ा करता है।
आजाद भारत में इतिहासकारों ने गौर के पास बसे महुआ डाबर को तोड़ने-मरोड़ कर ही पेश किया। लिहाजा असली महुआ डाबर को न्याय दिलाने के बजाये इतिहासकारों ने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई। महुआ डाबर जैसी विध्वंस की घटना इतिहास में जल्दी देखने को नहीं मिलेगी जहां इतनी बड़ी आबादी को जमीन में दफना दिया गया हो। देश के स्वतंत्र होने पर भारतीय सत्ता के लालची लोगों ने ब्रिटिश हुकूमत को जैसे माफ कर दिया हो लेकिन महुआ डाबर की चीत्कारें आज भी हवां में गूंज रही हैं।
1999 में स्थापित 'महुआ डाबर संग्रहालय' में महुआ डाबर और स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े दस्तावेज, सिक्के, औजार, चित्र और समाचार पत्र संरक्षित किये गए हैं। ताकि नई पीढ़ीयां सही इतिहास जान सकें। महुआ डाबर में उत्खनन कार्य 11 जून 2010 से 1 जुलाई 2010 तक संपन्न हुआ था। लखनऊ विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर अनिल कुमार सहित तीन लोगों की निगरानी में हुआ था। खुदाई के दौरान लाखौरी ईंट से बनी दीवारें, कुआं, विभिन्न दिशाओं में निकली नालियां, छज्जा, लकड़ी के जले टुकड़े, राख, मिट्टी के बर्तन, कारीगरी के औजार, फूलदान, प्राचीन सिक्के, अभ्रक (माइका) आदि मिले थे। खुदाई से प्राप्त सभी साक्ष्यों को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के पास भेज दिया गया था।
महुआ डाबर संग्रहालय के महानिदेशक और क्रांतिकारी वंशज डॉ. शाह आलम राना के प्रयासों से इस क्रांति स्थल को उत्तर प्रदेश पर्यटन नीति 2022 के ‘स्वतंत्रता संग्राम सर्किट’ में शामिल किया गया है। 10 जून 2025 से महुआ डाबर के क्रांतिनायकों को प्रशासन की तरफ से शस्त्र सलामी दी जाने लगी है। डॉ. राना ने जोर देते हुए कहा कि जालियांवाला बाग से बहुत पहले और कई गुना बड़ी इस घटना पर आज तक चुप्पी बनी हई है जबकि जालियांवाला बाग स्मारक पर 1997 में महारानी एलिज़ाबेथ ने मृतकों को श्रद्धांजलि दी थी। 2013 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरॉन भी इस स्मारक पर आकर इसे ब्रिटिश इतिहास की यह एक शर्मनाक घटना बताया। तो वहीं शताब्दी वर्ष 2019 में ब्रिटेन संसद में प्रधानमंत्री टेरेसा मे ने अफसोस जाहिर करते हुए ब्रिट्रेन के इतिहास का काला धब्बा बताया था। असली महुआ डाबर की राख में दबा इतिहास आज भी एक राष्ट्रीय स्मारक के रूप में पुनर्जीवन की राह ताक रहा है।