श्रीकृष्ण ने धर्म संस्थापनार्थ यही बात कही है कि जब-जब ऐसी स्थिति होती है तब-तब मनुष्य यदि अपने विवेक का उपयोग करे, अपनी ऋतंभरा प्रज्ञा का उपयोग कर उचित-अनुचित का निर्धारण करे, तो धर्म की तथा धर्म को ध्येय मानकर किए जाने वाले आचरण की उपयोगिता ‘व्यक्ति-परिष्कार व समाज-व्यवस्था’ भी बनी रहेगी। धर्म मानव समाज और संस्कृति का मूलाधार है। इसी आधारभूत तत्व के अनुसार संसार का शुभ व कल्याण टिका हुआ है। विश्व का कल्याण व मानव मात्र का शुभ धर्म-वेष्टित आचरणों में ही निहित है। अपने इस सार्वभौम स्वरूप के कारण सारे विश्व का धर्म तो एक ही है, जिसे विश्व धर्म, मानव धर्म कुछ भी संज्ञा दी जा सकती है। सामान्यतया धर्म के इस सार्वभौम स्वरूप की असीमता को न समझ, मनुष्यों ने धर्म को अनेक संप्रदायों, जातियों, वर्गों द्वारा पालन की जाने वाली उपासना-पद्धति, पूजा-पद्धति, कर्मकांडों के प्रकार आदि की विविधता के कारण इन संप्रदायों को ही धर्म मान लिया है। वास्तव में धर्म तो एक ही है। धर्म के लक्ष्यों तक पहुंचने के लिए जो अलग-अलग पद्धतियां प्रचलित हैं, वे धर्म नहीं वरन संप्रदाय हैं। धर्म मानो महासागर है और संप्रदाय नदियां हैं, जो विभिन्न स्थानों दिशाओं से आकर इस महासागर में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से विलीन हो जाती हैं। यदि इन नदियों को ही भ्रमवश कोई सागर मान बैठे व अपने सागर होने की महत्ता का ही ढिंढोरा पीटने लगे, तो पीटने पर नदी सागर तो बन नहीं सकती है, धर्म का तो एक ही लक्ष्य है, और वह है—सत्य, शिव, और सुंदर अर्थात ऐसे आचरण जो सत्य हों, शुभ हों, कल्याणकारक हों, तथा सुंदर हों।