बनाया है मैंने यह घर धीरे धीरे
खुले मेरे ख्वाबों के पर धीरे-धीरे
किसी को गिराया ने खुद को उछाला
कटा जिंदगी का सफर धीरे-धीरे
जहां आप पहुंचे छलांग लगाकर
वहां मैं भी पहुंचा मगर धीरे-धीरे
पहाड़ों की कोई चुनौती नहीं थी
उठाता गया यूं ही सर धीरे-धीरे
गिरा मैं कहीं तो अकेले में रोया गया
दर्द से घाव भर धीरे-धीरे
स्व0 विमलेंद्र कुमार शुक्ल
शिव नगर तुरकहिया पोस्ट गांधी नगर
जिला-बस्ती उत्तर प्रदेश